दहेज कहानी- रवींद्रनाथ
विवाह योग्य उम्र की महिला को मृत्यु तक अपने साथ रखने के लिए पुरुषों द्वारा दिया जाने वाला या माँगे जाने वाला इनाम, एक महिला की देखभाल के लिए एक पुरुष को दी जाने वाली मजदूरी, एक महिला जन्म की कीमत दहेज को विभिन्न व्याख्याओं में जाना जाता है। दहेज, अक्सर खुले तौर पर और गुप्त रूप से मांगा जाता है।, दहेज और पॉकेट मनी के रूप में जाना जाने वाला सामाजिक अभिशाप भावी जीवन के पथ पर एक काली छाया डालता है। रवींद्रनाथ द्वारा लिखित 'दहेज' नामक कहानी विषय वस्तु की दृष्टि से देखें तो दहेज पर लिखित सफल कहानी है। जीवन के अंतिम पर्वों में एक दिन उन्होंने कहा था- " पहली बार मैंने स्त्रियों का पक्ष लेते हुए 'स्त्री का पत्र' कहानी की रचना की थी।" उन्हें याद नहीं रहा कि अपनी पहली कहानी भी स्त्रियों के साथ खड़ा होकर लिखा था। रविंद्र की कहानियाँ जीवन के विभिन्न अनुभवों, सच्चाईयों पहलुओं सजर्क के सरोकारों तथा परिवेश के प्रति अपनी गहरी चिंताओं को जहाँ बड़े मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त करती हैं, वहाँ एक सजग साहित्य निर्माता के नाते अपने सकारात्मक दृष्टिकोण को ही हमारे सामने रखती हैं।
'दहेज' कहानी में निरुपमा, राम सुंदर मित्र, राय बहादुर का लड़का, राय बहादुर, राय बहादुर की साहिबा आदि प्रमुख का पात्र हैं। 5 लड़कों के बाद ही एक कन्या को मिला इस पुत्री को देवी देवताओं के नाम ना देकर राम बहादुर जी ने पुत्री को निरुपमा नाम रखा। प्यार से पिता ने पुत्री को नीरू पुकारा। नीरू के लिए मनपसंद वर की खोज में लगे रामसुंदर को अंत में राय बहादुर के इकलौते बेटे से शादी पक्की, दस हज़ार की रकम और दान सामग्री की माँग पर। लेकिन रुपयों की व्यवस्था ना होने पर विवाह के दिन राय बहादुर ने कहा- "रुपए मिले बिना वर को मंडप में नहीं लाया जाएगा।" अंतपुर में रोना धोना मच गया। इस समय चुप्पी साधी बैठ रही निरुपमा का वर्णन कवि ने इस तरह किया है, उससे तत्कालीन समाज की नारियों की असहायता देखने को मिलती हैं। 'इसका जो मूल कारण है लाल पीली साड़ी पहने, गहना पहने, माथे पर चंदन चुपडे चुप बैठी है। भावी- ससुर कुल के प्रति भारी भक्ति या अनुराग उत्पन्न हो रहा हो ऐसा नहीं कह सकते।" लेकिन लड़का विद्या संपन्न था। उसने कहा - "खरीद फरोख्त मोलभाव की बात मैं नहीं समझता विवाह करने आया हूँ विवाह करके ही लौटूँगा। " पुत्र के इस प्रस्ताव को सब लोग वर्तमान शिक्षा का विषमय फल कहा है। ससुराल जाते वक्त नीरू ने पिता से पूछा- "बापूजी क्या ये लोग मुझे फिर कभी आने नहीं देंगे ? राम सुंदर ने उत्तर दिया-" आने क्यों नहीं देंगे बेटी मैं तुम्हें यहाँ लाऊँगा। " यह वादे को पूरा करने के लिए वह अंत तक असफल रहा। बाकी दहेज के इंतजाम करने के लिए उन्होंने जो इतिहास रचा। वह गोपनीय रहना ही भला है। वर विवाह के थोड़े ही दिनों बाद डिप्टी मजिस्ट्रेट होकर दूर चले जाने के बाद ससुराल नीरू के लिए काँटों की सेज बन गई। अपने परिवारवालों से मिलने के लिए, कपड़े के लिए, अन्न के लिए भीख माँगनी पड़ी। इन सबके बावजूद भी नीरू पिता ने घर गिरवी में रखकर इंतजाम किए दहेज को इस तरह कहकर अस्वीकार किया - " रुपया देना ही अपमान है, तुम्हारी कन्या का क्या कोई सम्मान नहीं। क्या मैं केवल रुपयों की थैली भर हूँ। जब तक रुपए हैं तब तक मेरा दाम है। नहीं बापूजी, ये रुपए देकर मेरा अपमान मत करो। यह कहने की ताकत आजकल की शिक्षित आत्मनिर्भर स्त्रियों में भी बहुत कम है। अपनी शादी में खुद दहेज पूछनेवालियों की संख्या भी कम नहीं है। दहेज को वापस देने के बाद ससुराल में नीरू की हालत बिगड़ गई। कठिन रोग से पीड़ित होकर जब वह मरती है तब ससुरालवालों ने धूमधाम से अन्योष्टि क्रिया की है। चंदन कांठ की तैयारी भी की है । पत्नी की मृत्यु न जानकर पति ने एक पत्र भेजा-" मैंने यहाँ सारा बंदोबस्त कर लिया इसलिए मेरी पत्नी को फौरन यहाँ भेज दें। रायबहादुर की श्रीमती के पत्र के जवाब के साथ कहानी समाप्त होती है- "बेटा हमने तुम्हारे लिए एक दूसरी लड़की का रिश्ता तय किया है, इसलिए छुट्टी लेकर फौरन चले आओ।"
इस कहानी की प्रासंगिकता यह है कि आज भी लखनऊ में एक महिला ने एक सुसाइड नोट लिखा कि वह अपने बच्चे के साथ अपना जीवन समाप्त कर रही है क्योंकि पुलिस ने उसकी दहेज की शिकायत पर कारवाई नहीं की और यह नोट सोशल मीडिया पर वायरल हो गया है। आजकल भी विवाहितों के साथ मारपीट, घर से निकालना आदि आम बात है। दहेज की प्रथा वर्षों से भारतीय समाज में गहरी जड़ें जमा चुकी है, यह एक सामाजिक संकट में बदल गई है, जो सुधारकों (रेफोर्मेर्स) और कानून निर्माताओं द्वारा निपटने के लिए बहुत गहरी और शैतानी है। हालांकि दहेज प्रथा को हटाने का प्रयास एक सदी से भी अधिक समय से चलता आ रहा है, लेकिन यह पिछले दो दशकों के दौरान शायद सबसे खतरनाक सामाजिक मुद्दा बन गया है।
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